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मैं जिन्हें अवधार कर चल चुका हूं।

आज देखो सांस अंतिम ले रहा हूं 
है कोई शिकवा तुझे तो बोल देना ।
हो चुका निष्काम मेरा देह अब तो
पंच मुट्ठी  भर के  मिट्टी मोल  देना।

सौंप देना  मुझको  धरा  के गर्भ में
हां पता है  यह  तेरा  ही  स्वप्न था।
आज देखो मैं गिरा फिर अश्क क्यों
गिर रहा था कल यहां तो जश्न था।

स्वयं को अर्पित  किया  हूं प्रेम में 
और क्या होता भला अब तो कहो।
ग़ैर और अपने में क्या कुछ फर्क है
दर्द देता है  जमाना  अब तो सहो।

बांह  थे  पसरे  मेरे  तेरे  लिए 
रात दिन बेचैन हो जीता रहा था।
प्यास थी मेरे रूह की हां प्रेम की
पर बुझाने अश्क को पिता रहा था।

याद कर वो दिन भी जब ख़ामोश था
हाथ को थामे हुए कुछ यूं कहा।
तुम मिले हो अब मुझे लेकिन सुनो
मैं तुम्हें युगों से  खोजता युं रहा।

आंख ने खोई थी मेरी रोशनी
और मेरे सांसों में भी उन्माद था।
स्पंदन का हृदय से था विरह 
और धक धक को कहो अवसाद था।

रक्त पीले हो चुके थे धमनियों में
अश्क से भरता रहा नस की लड़ी।
था सिहरता पल उजाले से भरा
भय नहीं किंचित किसी भी दो घड़ी।

चैन की चाहत लिए मेरे हृदय
यह स्वयं में सृजित अभिशाप था।
जो भी हुआ तुम नहीं दोषी प्रिए
जो भी हुआ हर सबब मैं आप था।

अब चला हूं मैं तो रोको मत मुझे
फिर मिलेंगे हम अगर अगले जनम।
मैं जिन्हें अवधार कर चल चुका हूं।
वो मुझे स्वीकार है सातों जनम।
हां वो मुझे स्वीकार है सातों जनम।।

दीपक झा रुद्रा

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7 Comments

Pallavi

15-Dec-2021 06:35 PM

Nice

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Priyanka Rani

15-Dec-2021 06:13 PM

Nice

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Kaushalya Rani

15-Dec-2021 05:38 PM

Nice

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